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पाटलिपुत्र के खंडहर से / रामगोपाल 'रुद्र'

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हे गरिमा के विस्मृत प्रतीक!

अरमानों की मूर्च्छित समाधि!
विधुरा विभवश्री के सिँगार!
प्रभुता के ओ कंकाल-शेष!
नि: शेष कलाओं के मज़ार!
महिमा-मंडित मागध अतीत की सुप्त प्रगति, चिर–निर्व्यलीक!

कितने युग आये और गये
तुम पर कितनी क्या छोड़ छाप;
कितनों का सुख, कितनों का दुख
देखा है तुमने सपरिताप;
देखा है तुमने बर्बरता का सभ्य वेश, शासन अलीक।

पर, सच कहना, हे वृद्ध, कभी
क्या ऐसा ही था समय हाय!
जब आज सदृश था मगध-लोक
इतना दरिद्र, इतना अपाय?—
जन-जन जड़वत्, मन क्षत-विक्षत, जीवन प्रतिहत, सहते व्यलीक।

दाने-दाने को आज पड़े
लाले, बिललाते वृद्ध-बाल,
बस चटोरे चंटों के
अतिरिक्त बने सब ही कँगाल,
असमय चिन्ता-हिम से मुरझे यौवन-मानस-मुख-पुण्डरीक्।

तन-मन-जीवन प्रतिबद्ध वायु–
मंडल में आज विषाक्त बना,
खर-कूकर से भी हाय! हीन–
तर राम-कृष्ण का भक्त बना;
कुछ बोलो तो हे आर्य! मिटेगी कब, कैसे, यह नियति-लीक?

हो रहे विफल सारे प्रयास,
होता जाता बल-धैर्य क्षीण;
इस अंधतमस में भ्रान्त, पंथ
भी सूझ न पड़ता समीचीन;
तुम इतना तो बतला दो हे, है कौन सफलता-सरणी ठीक।

संकेत मात्र तुम दे दो, हे
अनुभवी, मगध के मौलि-मौर!
हमको बस आवश्यकता है
तुम 'हाँ' कह दो, बस कुछ न और;
हे साधु! विलोको, तत्पर हैं नवयुग के ये अगणित अनीक।

तुम तो सुनते हो अहोरात्र
सुरसरिता का वह स्वर-सँदेश
पाटली-पुत्र! रे सुप्त सिंह!
उठ, जाग, बचा पतयालु देश–
फिर भी, यह कैसा मौन? लाज-भय कैसा यह? हे चिर-अभीक!
जागो, ओ गरिमा के प्रतीक!