पाठांतर / विष्णु खरे
उम्र ज़्यादा होती जाती है
तो तुम्हारे आस-पास के नौजवान सोचते हैं
कि तुम्हें वह सब मालूम होगा
जो वे समझते हैं कि उनके अपने बुजुर्गों को मालूम था
लेकिन जो उसे उन्हें बताते न थे
सो वे तुमसे उन चीज़ों के बारे में पूछते हैं
जिन्हें तुम ख़ुद कभी हिम्मत करके
लड़कपन में अपने बड़ों से पूछते थे
और तुम्हें कोई पूरा तसल्लीबख़्श जवाब मिलता न था
फिर भी उतनी व दूसरी सुनी-सुनाई बहुत-सी बातें
प्रचलित रहती ही थीं
और अलग-अलग रूपांतरों में दुहराई जाकर
वे एक प्रामाणिकता हासिल कर लेती थीं
सो तुम भी उन कमउम्रों को कमोबेश वही बताते हो
अपनी तरफ से उसे कम से कम अविश्वसनीय बनाते हुए
उस यकीन के साथ जो
एक ख़ालिस लेकिन लम्बी बतकही पर आश्रित रहता है
और वे हैरत में एक दूसरे को देखते हैं
और तुम्हें काका या दादा सम्बोधित करते हुए
आदर से बोलते हैं कि आपको कितना मालूम है
अब तो इससे चौथाई जानने वाले लोग भी नहीं रहे
आपसे कितना कुछ सीखने-जानने को है-
और अचानक तुम्हें अहसास होता है
कि जो तुमने उन्हें बताया उसे अपनी सचाई बनाते हुए
जब ये लोग अपने वक़्त अपने नौजवानों से मुख़ातिब होंगे
तो तुम जैसों के हवाला बना कर या न बना कर
वही दुहरा रहे होंगे
जो तुम्हें अनिच्छा से बताया था तुम्हारे बुजुर्गों ने
अपने बड़ों से उतनी ही मुश्किलों से पूछ कर
लेकिन उस पर एक अस्पष्ट यक़ीन करके
और उसमें अपनी तरफ़ से कुछ भरोसेमंद जोड़ते हुए-
इस तरह धीरे-धीरे हर वह चीज़ प्रामाणिक होती जाती है
और हर एक के पास अपना उसका एक संस्करण होता है
उतना ही मौलिक और असली
और इस तरह बनता जाता होगा वह
जिसे किसी उपयुक्त शब्द के अभाव में
परम्परा स्मृति इतिहास आदि के
विचित्र किन्तु अपर्याप्त बल्कि कभी-कभी शायद नितांत भ्रामक
नामों से पुकारा जाता है।