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पातन-युग / रूप रूप प्रतिरूप / सुमन सूरो

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भारत-शिव संवाद

भारत:

छौरा ढेरी के भितरोॅ सें धुआँ उठै छै
कारोॅ करने जाय रहलोॅ छै सुरुजदेव केॅ
कोन ठिकानोॅ कोन घड़ीं धिधियाबेॅ लागेॅ
के जानै छै महाकाह के यै फरेब केॅ?

जीनीं के साजो-समान छै थोड़ोॅ-थाकड़
पर मरनी के घटाटोप अंबार खड़ा छै
आय आदमी अत्मैहन के बाट गढ़ै छै
ओकरा नजरी में विनाश के मान बड़ा छै।

प्रकृति-गाय दूही क घी तैयार करलकै
विक्ख करी रहलोॅ छै ओकरा मथी-मथी केॅ
अच्छा परिणामोॅ पर ऊ संतुष्ट कहाँ छै?
खुद नै जानें छै-खोजै छै कथी-कथी केॅ।

आय आदमी के हाथें हथियार विनाशक
एतना जौरोॅ होय गेलोॅ छै-यै धरती केॅ
बारोॅ बेर मिटाबेॅ पार एक्खै लागें
धुइयाँ में बदल पार पत्थर-परती केॅ।
एहनोॅ समय भरीसक धरती के जिनगी में
पेहलोॅ बेर खड़ा छै भीषण मूँ बाबी केॅ
देव! करोॅ कल्याण, बचाबोॅ मान सृष्टि के
रक्षा करोॅ अरक्षित शरणागत पाबी केॅ।

शिव:

ई अन्हार ‘पातन-युग’ के इजहार बनी केॅ
ईर्द-गिर्द में धरती के घुमड़ो रहलोॅ छै
प्रबल बेग, झझा-ठनका उत्पात बटोरी
भीम-भयंकर रूपोॅ में उमड़ी रहलोॅ छै।
चिन्ता के छै बात सौर-मंडल के साथी
यही अन्हारोॅ के चपेट में कहीं बिलैलै
अति चेतन प्राणी सें भरलोॅ जीवनमय ग्रह
धुआँ बनी केॅ अंतरिक्ष बाटें बिलमैलै।

सबसें पैहने धरै-दबोचै यें विवेक केॅ
तेकरा बादें दुर्बुद्धी केॅ उग्र बनाब
सोंखी संवेदन हिरदय सें व्यक्ति-व्यक्ति के
निरस ............ री के खोइया रं ढेर लगाबै।

जे रं जारन बन केतारी के केतारिथे
नरें वहेॅ र खुद सें ही नरता केॅ जारै
यै अन्हार के महिमा अजगुत-अजब-निराला
खुशी-खुशी जीवें खुद ही जीवन संहार।


भारत:

पातन-युग?

पातन युग के बात समझ में कुछ नै ऐलै
कृपा करी के देव बताबोॅ विस्तारं सें
यै अन्हार के घनोॅ-घनगरोॅ घटा छँटै के
की उपाय छै? बोध कराबोॅ प्रतिकारोॅ सें

बचलोॅ रेॅहेॅ अनन्त काल अपरूप हिमालय
गंगा-जमुना आसमुद्र वन के हरियाली
छोटोॅ-छोटोॅ जीव-जन्तु के प्राण-पखेरु
कोमल-कोमल तन के छवि, मन के खुशियाली

दक्षिण सें उत्तर धु्रव तक ई धरती माता
रूप-रूप प्रतिरूप सजैतें रहेॅ यहेॅ र
कोय उपाय बताबोॅ जे सें टलेॅ विपत्ती
कुछ प्रतिकार करोॅ करुणामय-चिन्मय गोपन!

शिव:

जे र आय धरा छै विज्ञान ...... सजलोॅ
छेलै कभी वहेॅ रं गवैतोॅ पातन भी
पृथ्वी रं ही कक्षा पर वै दौड़ लगाबै
हरा-भरा खुशहाल रहे टलटलै जी .....भी

लेकिन मचलै होड़-जबेॅ जन-जन के.........
परम विनाशक अस्त्र-शस्त्र तैयार करल के
यही अन्हारें घेरी लेलकै पातन-.....
सब विवेक सब न्याय ज्ञान-विज्ञान हरलकै।

अहंकार-ईरा संे जल-जल जन-जन के मन
आत्मघात के ज्वाला सें भरलै-भरमैलै
छोड़ेॅ लागलै मूढ़ बनी केॅ अस्त्र-शस्त्र सब
अंतरिक्ष में धुआँ बनी ‘पातन’ बिलमैलै।

कमलै एक सदस्य तखनियें सौर-चक्र के
विज्ञानी के अविवेकेॅ पर सृष्टि सिहरलै
हरा-भरा जीवन सें भरलोॅ खपसूरत ग्रह
सदा-सदा के लेली जीवन-क्रम सें मरलै

पत्मैहन के वही अन्हरियाँ धरती केॅ घेरी रहलोॅ छै;
जन-जन के मन सें तिल-तिल केॅ संवेदन पेरी रहलोॅ छै;
आय आदमी खुद मर्जी सें बन्दी अपना भीतर;
.......कछुआ-साथ रहै छै हरदम कछुआ घर।