पाती / शिवबहादुर सिंह भदौरिया
मैं लिखता हूँ यह पाती तुमको भरे-भरे मन से,
पढ़ना इसको जब गगन कभी घिर जा-
सजल घन से।
सब कूल-कगारे तोड़ हृदय सागर-सा बहता है,
कोई दुख है जो केवल तिनके सा अब तिरता है;
तन की डाली-डाली में क्या बेला-सा गमका है,
तुमको लिखने में प्राण नये चन्दन-सा महका है;
जब उठने लगे सुगन्ध
तुम्हारे भी प्रिय तन-मन से,
छूना भर केवल पाती को तुम अपने कंगन से।
खामोश पवन सब पेड़ों का जब सिर सहलाता हो,
धीमे-धीमे बाँसुरी कहीं सुनसान बजाता हो;
बादल का पर्दा हटा आँख जब चाँद खोलता हो,
ऊपर को देखे मगर पपीहा कुछ न बोलता हो;
उस समय खोलना
पाती को भी तुम निर्भय मन से,
जब कोयल का संगीत मुक्त करता हो बन्धन से।
जी ऊब गया होगा आदर्शों की परिपाटी से,
घुल मिल लेना कुछ देर सरल सपनों की घाटी से;
जग पड़ना तो मुँह धो लेना सुस्मृति के पानी से,
दाना का लेना काम तनिक अपनी नादानी से;
तुम पास उसी के जाना
फौरन, मन के स्यन्दन से,
जो ख्याल बड़ा प्यारा हो तुमको अपने बचपन से।
यदि किसी भाव का अर्थ न तुमसे साफ निकलता हो,
या शब्द कहीं कोई निश्छल प्राणों को छलता हो;
या अगर कहीं हर अक्षर हाथों-सा लम्बा होकर,
हो चाह रहा तुमको भेंटे अपनी सुध-बुध खोकर;
तो हाथ प्रभावित करे
तुम्हें जो व्याकुल दर्शन से,
तुम लिपट उसी से जाना अपने पूर्ण समर्पण से।