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पानी-1 / प्रभात त्रिपाठी

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पानी के बारे में सोचो
तो याद आते हैं जितने भी दृश्य
उनसे नहीं मिटती प्यास
बल्कि और खरी हो जाती है

बेचैनी में पसीना-पसीना होती है कल्पना
और प्यास पुकारती है रोम-रोम से
रात के तीसरे पहर के खाली घड़े में
पेंदे से लगी तलछट भी नहीं

पर पानी की सोच में
जाने कितने असंभव जलविम्बों की कतार
माथे से टपकती बूँद से लेकर
समुद्र की पछाड़ खाती लहरों तक
अविरल तृषा की इस पुकार में
चिड़ियों को दाने
और बच्चों को गुड़धानी की प्रार्थना
सूख कर बन चुकी है रेत
और अपनी प्यास के नसीब में तो
रेत पर औंधा पड़ा
एक खाली घड़ा है.