पानी एक आवाज़ है / प्रेमशंकर शुक्ल
पानी एक आवाज़ है :
कभी विलम्बित, कभी द्रुत
कभी मध्य लय में बहती हुई
कभी मौन मैं धड़कती हुई बहिर्ध्वनि के बिना
‘कामायनी' की शिला की शीतल छाँह में बैठकर
भीगे नयनों से सुनता है जिसे मनु
मिट्टी की अनेक परतों के भीतर जड़ जिसे पीकर
वृक्ष की सबसे ऊपर की फुनगी तक को
कर देती है हरा-भरा । फ़सलों की बालियाँ जिसका कोरस गाती हैं
खेत-खलियान में भर-भर चुल्लू पीते हैं जिसे मजूर-किसान
हल में नधे बैल लौटने पर सार के नाद में पी जाते हैं जिसे
एक साँस । बच्चे जिसमें नहाते हैं उछल-कूद
और चिरई-चुनूगुन चुगते हैं जिसे बूँद-बूँद
घाट पर जिसके हँसी-मजाक, बोली-ठिठोेली के
झरने फूटते हैं और अनुरागी मन भीजता है
अपनी जल-लिपि में लहरें जिसे लिखती हैं । बूँद जिसे तत्त्वतः गहराई
देती है । जिसे सहेजकर रखती है प्यास कलश में ।
बर्फ़ीले पहाड़ों में-झीलों के घाट में, नदियों के पाट या बहाव में
पीता रहता है जिसे पत्थर और पानी से अपने समवयस्क रिश्ते को
करता रहता है घनीभूत !
पानी एक आवाज़ है :
घूँट के व्याकरण में बुनी हुई गूँजती हुई बूँद से समुद्र तक
जो हँसिया-खुरपी को देती है धार और हल की फाल को
करती है चोख । दीए और घट गढ़ने के लिए मिट्टी को देती है जो लोच ।
जो अयस्क को करती है वयस्क
क्वाथ, रिष्ट, आसव आदि जिसके औषधीय संस्करण हैं
जिस में नहाकर जन-गण के मन में
भर जाती है तरलता -- आ जाती है तरावट
और चलती नहीं लू की कोई राउरमाया !
भीग-भीग कर जिससे कालिदास ने रचीं उपमाएँ
दण्डी के पद में ललित आया । भारवि को मिला अर्थ-गौरव
और माघ ने तो पाया ये त्रयोगुण
पानी एक आवाज़ है :
जो माँ के कलेजे से निकलकर बेटे की आँख में ढरकती है
जो घुटन और ख़ामोशी के ख़िलाफ़ है
बचाती हुई आत्मा को बर्फ़ होने से
जिसमें है मुक्तिबोध का आत्मप्रश्न :
‘अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया
ज़्यादा लिया, और दिया बहुत-बहुत कम'
निकल पड़ती है जो क्रौंच-वध पर
आदि-कवि की आत्मा से एकाएक
जो व्यास की महाभारत वाणी है
लिखते हैं जिसे गणेश
तानसेन के कण्ठ से निकल पिघलाती है जो पत्थर
और अपने दीपक राग से जला देती है जो चिराग
जिसमें जैसलमेर-बाड़मेर के रेगिस्तान का घर
अण्टार्कटिक इग्लू की कुशल-क्षेम सोचता है
कुएँ में बालटी डूबने का जिसमें संगीत है
जो घाट में कलश से चलकर कण्ठ तक खनकती है
आधी रात में खटखटाती है जो प्यास का दरवाजा
उजाड़े-काटे जा रहे वनों से सूखती जा रही है जो
और अवर्षा से मुरझा गया है जिसका चेहरा
जो पहाड़ और समुद्र के बीच सेतु है
जिसके सहारे कितनी तो बोली-बानी
होती हैं इधर से उधर या उधर से इधर
पानी एक आवाज़ है :
मोर की आँख से पीती है जिसे मोरनी
स्वामी हरिदास के ध्रुपद में जो नाद सौन्दर्य है
भरत के नाट्यशास्त्र में जो भाव, रस, अभिनय, मुद्रा है
भवभूति में करुणा-जल । प्रांजलता बाणभट्ट के आख्यान में
अमीर खुसरो के खयाल में जो गमकता हुआ सुर है
और ‘बहुत कठिन है डगर पनघट की' एक पूरा जीवन दर्शन ।
पानी एक आवाज़ है :
सुना था जिसे लक्ष्मण ने पंचवटी में
सीता और राम के सम्वाद में और दौड़कर लाए थे
गोदावरी का निर्मल शीतल जल
जिसमें मृगया के लिए जंगल में गया कथा का राजा
भटकता है प्यास से व्याकुल । और पाखियों के प्यास के रोचक क़िस्से हैं
मृगतृष्णा भी इसी की खोज है
जो रवीन्द्र रचित राष्ट्रगान में
करोड़ों भारतीयों की उच्छल (स्वर की) जलधि-तरंग है
‘भारत दुर्दशा' पर जो भारतेन्दु का हाहाकार है
प्रेमचन्द के ‘ठाकुर का कुआँ' में उजागर होता है जिससे सामन्ती चरित्र
और ‘गोदान' में जो होरी की पगड़ी है
पानी एक आवाज़ है :
बारिश में जो थिगड़े लगे छप्पर के नीचे सोए
गृहस्थ की नींद में टपकती है और गृहस्थिन
टपके और चुअना की जगह रखती हैः
लोटा, टाठी, कठौता, गगरा, बटुई-बटुआ, करचा, खोरा, तसला, बाल्टी
पानी एक आवाज़ है :
ऐसी कि सोमालिया के बच्चे की भूख
‘व्हाइट हाउस' के बच्चे को कर दे बेचैन
जिसमें मिटा दिए गए तालाबों की चीख़ है
और उजड़ रही नदियों की सूखी रेत
जिसमें गहरा आक्रोश है
कि क्यों कर रहे हैं विदर्भ के किसान आत्महत्या
क्यों दाल, नमक दिनोंदिन महँगे हो रहे हैं
जबकि सस्ती हो रही हैं कारें
पानी एक आवाज़ है :
जो मरने नहीं देती प्यास
तैरती है जिसमें बच्चों की नाव
जिसमें विन्ध्य का झरना
आल्पस की घाटी से बात करता है
जिसमें केरल के धान का खेत
उक्राइना के घास के मैदान की हरियाली से बतियाता है
जिसमें नर्मदा का पानी
सहारा की प्यास के लिए तड़पता है
जिसमें वैमर का कुंज
सतपुड़ा के आँगन में मँहकता है
जिसमें है आपसदारी का अचूक रसायन
और पारायण जि़न्दगी के समग्र पाठ का
पानी एक आवाज़ है :
जो अमरीकी बमवारी में अपने माँ-बाप खो चुके
और अपना पाँव गवाँ चुके इराकी बच्चे की आँख में
डबडबाए आँसू और गुस्से के साथ फूटती है
पानी एक आवाज़ है :
महाप्राण जिससे ‘तुलसीदास' को
‘भारत के नभ के प्रभापूर्य-शीतलच्छाय सांस्कृतिक सूर्य' कहते हैं
‘बादल राग' में गाते हैं मेह-नेह-राग और ‘सरोज स्मृति में'
करते हैं दुःख का तर्पण ।
झंकृत है जो बाबा अलाउद्दीन ख़ाँ के वाद्य वृन्द में
‘सब सर्जन आँचल पसारकर लेना' में है
जो अज्ञेय का हृदय सत्य । ‘वरुण के बेटे' लिखते हैं जिससे
यात्री नागार्जुन और ‘बादल को घिरते देखा है' में भेंटते हैं कालिदास से
जो मीरा-वाणी है
जिसे एम० एस० सुब्बलक्ष्मी ने गाया है उतने ही महान कण्ठ से
और ताई किशोरी अमोणकर के ‘म्हारो प्रणाम' से
कृतकृत्य हुआ है राग । ग़ालिब की जुबान में जो एक पूरे ज़माने की
मुकम्मल दास्तान है और दर्द को जीने की तमीज़
पानी एक आवाज़ है :
सान्द्र, तरल, हिम-आलय
जो पृथ्वी का सबसे गहराई और शिखर तक
साथ देती है । जो खारा होने से बचाती है आत्मा का जल
और बंजर नहीं होने देती भाषा की ज़मीन
फ़सलों और वनस्पतियों की हरीतिमा में जिसका मन रमता है
बाज़ारू चकाचौंध से जो घबराती नहीं
और उठाती नहीं पूंजीवाद के नाज़-नखरे
जो प्रजातन्त्र के सामन्ती व्यवहार का
साहसपूर्वक करती है प्रतिरोध
बड़प्पन के सामने जो विनम्र है
और चालूपन के सामने है तनेन
पानी एक आवाज़ है :
लिंकन, लेनिन, गाँधी, नेल्सन मण्डेला के संघर्ष राह की
जूझने का संविधान बनाती हुई और चुनती हुई न्याय-पथ
मनुष्यता का ऊँचा माथा है जो तलस्तोय के आख्यान में
जो पूछती है सवाल कि क्यों दिया गया सुकरात को जहर ?
मरीना स्वेताएवा ने क्यों की आत्महत्या ? क्यों मारा गया पाश ?
और वानगाग का कैसे हुआ इतना त्रासद अन्त ?
पानी एक आवाज़ है :
आवाज़ के पानी से भीगी हुई --
हलक में बजती हुई । आलोड़न-गात ! अथाह ! पारदर्शी !
गंगा, यमुना, ब्रह्रमपुत्र, कृष्णा, कावेरी,
नर्मदा, सोन, महानदी, सिन्ध, पद्मा, मस्कवा, वोल्गा, नील, सीन,
अमेजन, सिक्यांग, सरयू, मिसीसिपी, राइन, डेन्यूब का संगम
जिसकी जुबान है और जिसका चेहरा महासागरों जितना विशाल है
जो महीने के कृष्ण और शुक्ल राग में अपना निस्तार करती रहती है
दिशाएँ जिसके प्यास का उच्चारण करती हैं
और ब्रह्रमाण्ड के लोटे से पीता रहता है जिसे प्रत्येक होंठ !
पानी एक आवाज़ है :
दुनियादारी से घर लौटकर
चेहरे पर जिसके छींटे मार-मार कर
उतारते हैं हम थकान
और अपमान !
घूँट के आयतन से गिलास का पानी
हमारे दिल का हाल जान लेता है !