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पानी की पुकार! / मंजुश्री गुप्ता

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मैं...
नदियों और समुद्रों से भाप बन उड़ता
बादलों में समाता
फिर बरसता
तुम्हारे घर आंगन ,झीलों ,नदियों
वन, उपवन में
आकांक्षा यही है मेरी
कोई प्यासा न रहे
वन उपवन
हरे भरे रहें...
मगर तुम क्या कर रहे हो?
तुम्हारी संख्या तो
बढती ही जा रही है
कैसे बुझाऊँ तुम सबकी प्यास?
दिन प्रति दिन
भीड़ ही भीड़
तालाब, कुओं बावडियों,
झीलों को पाट कर
वनों वृक्षों को काट कर
उगा रहे हो कंक्रीट के जंगल
जब मैं बरसता हूँ
मुझे बहा देते हो नालों में- व्यर्थ
क्या संचित नहीं कर सकते थे मुझे?
कि कुछ और लोगों की
प्यास बुझ जाती!
और कुछ और वृक्ष हरे हो जाते?
मेरी उपेक्षा क्यों?
क्योंकि मैं बहुत सस्ता हूँ इसलिए?
मैं नाराज और उदास हूँ
ख़त्म हो रहा हूँ
बहुत जल्दी जब मैं
तुम्हारे बीच नहीं रहूँगा
तब समझ आयेगी तुम्हे मेरी कीमत
बोतलों की जगह
शीशियों में खरीदोगे मुझे
लड़ोगे तीसरा विश्व युद्ध
तो याद करोगे कि
किस तरह बर्बाद किया था
मुझे बेदर्दी से
वह दिन ज्यादा दूर नहीं
जब रह जाएगी सिर्फ कहानी
कि इस सूखी धरती पर
कभी होता था पानी!