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पानी के घाव / त्रिपुरारि कुमार शर्मा
Kavita Kosh से
बहुत उदास है पानी भी आज मेरी तरह
उम्र-ए-बारह में उसका बाप मर गया जैसे
किस तरह ठहरा हुआ है नदी की बाहों में
जैसे छाती पे पति रख कर, विधवा रोए
न कोई आहट, न हलचल, न शोर ही कोई
आँख मूँदी हुई-सी, होंठ भी सूखे-सूखे
अपने हाथों से अपने चेहरे को छुपाए हुए
कभी हैरान-सा और कभी लजाए हुए
कैसे बैठा है चुपचाप सिमट कर ख़ुद में
जैसे ज़िराफ की गोदी में छोटा-सा बच्चा
सिसक रहा है तब से, जब से आया हूँ
उसके माथे पे परेशानी के छींटे हैं कई
टपक रही है सूरज की साँस क़तरों में
कुछ देर में निकलेगा जब चाँद गुफ़ा से
और आसमां के बदन पर ‘कोढ’ उभरेगा
और पानी में बनेंगे फिर धब्बे कितने
मैं बैठा सोच रहा हूँ गुमसुम
घाव कैसे भरेंगे पानी के ?