पानी के पत्थर / कुमार कृष्ण
मेरी कविता में
जितनी बार आए हैं पहाड़
उतनी ही बार आए हैं मवेशी
पहाड़ों का कविता में चुपचाप चले आना
ज़मीन का पोर-पोर रिसना है
मैं अपनी कविताओं में
पहाड़ों को निचोड़ लेना चाहता हूँ
जैसे माँ निचोड़ती है फटे हुए कपड़े
और लटका देती है उलटा
लोहे के तार पर।
मैं करना चाहता हूँ बात
फटे हुए कपड़ों पर
उसी वक़्त घेर लेते हैं बर्फ कटे पाँव।
तुम नहीं जानते
तकलीफदेह है कितना
बर्फ कटे पैरों के साथ
हल जोतना
और महसूस करते जाना
पहाड़ की गरमाहट।
मैं लिखना चाहता हूँ
खेतों का ताप
मिट्टी की बौखलाहट
बीज की बेचैनी
ज़मीन का उन्माद
सभी कुछ एक साथ
फोड़ना चाहता हूँ पहाड़
कविता के शब्दों से।
धान के खेत
जब भी होते हैं तबदील
चावल में
गर्म करती है माँ
पुआल के बिस्तर में
बर्फ कटे पाँव
छोटी बहन रटती है
देश की नदियाँ
वह नहीं जानती
ठिठुरती है कैसे
नदियों के पानी में पुआल
पूरा साल
मैं लिखना चाहता हूँ
पुआल की गरमाहट।
अच्छी तरह याद है मुझे
बहन के जन्म से पहले
माँगकर लायी थी माँ
पुआल का बिस्तर
वे जाड़ों के दिन थे
दरख्तों के टूटने के दिन
पहाड़ों के रिसने के दिन।
छप्परों के छेद से
मौसम के रंग पहचानना
पुरानी आदत है माँ की
फिर भी हर बार
धोखा दे जाता है मौसम।
मैं सुनाना चाहता हूँ सरेआम
बर्फ की तकलीफ
जो होती है लगातार
अँधेरी रातों में।
जितनी बार रिसेंगे पहाड़
उतनी बार ठिठुरेगा पानी
पहाड़ का रिसना
पानी का पत्थर बनना है।
मैं सौंपना चाहता हूँ वह दर्द
अपनी कविताओं को
जो होता है लगातार
पानी को पत्थर बनने में।