भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पानी भी धुआँ देने लगा / यश मालवीय

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

प्यास के हर प्रश्न पर सूखा कुआँ देने लगा
आग की क्या बात, पानी भी धुआँ देने लगा

मरे पशु की गंध से भारी हुए रस्ते
रो रहे हैं लोग, केवल हादसे हँसते
जो मिला बस थके काँधों पर जुआ देने लगा

युग पुरूष, युगबोध के और हुए दीखे
भीड़ में चुप रहे पर सुनसान में चीख़े
मौत का डर मगर जीने की दुआ देने लगा

बस जंयती, पुण्यतिथियों में उमर बीती
किस घड़ी में कलेंडर से दोस्ती की थी
वक़्त नंगा तार बिजली का छुआ देने लगा

‘लोनमेला’ देख सब मेले हुए फीके
उस तरह मर लिया, मर लो इस तरह जी के
जो नहीं था, क्लास अपना बुर्जु़आ देने लगा

हो रहा जो, कभी उसकी भी वजह देखो
आँख जल जाए न सपने इस तरह देखो
स्वयं को आवाज़ बूढ़ा ‘हरखुआ’ देने लगा