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पानी / अभिनंदन
Kavita Kosh से
पानी ही सें जीव छै, एकरै सें संसार
जे पानी छै प्राण रं, वही बहै बेकार ।
अमृत रं ई पानी के, जे नै समझै मोल
ऊ उत्सव में, पर्व में, एकदम फुट्टा ढोल ।
नै बूझै छै बात केॅ, इखनी उन्मत घोर
बुझतै पानी की छेकै, जखनी सुखतै ठोर ।
पानी चलले जाय छै, एकदम्मे पाताल
की होतै संसार के, वृक्ष-जीव के हाल ।
धन-दौलत के वास्तें, इखनी लड़ै छै लोग
लड़तै पानी वास्तें, ई भी लगतै रोग ।
सतयुग द्वापर ही रहेॅ या कलयुग के काल
पानी किनतै देवता, किन्नर-नर बेहाल ।
पानी पानी राखतै सब लोगोॅ के मान
ओकरोॅ काल नगीच छै, जे यै सें अनजान ।