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पान / सुशीला पुरी
Kavita Kosh से
रूँधना पड़ता है
चारो तरफ़ से
बनाना पड़ता है
आकाश के नीचे
एक नया आकाश
बचाना पड़ता है
लू और धूप से
सींचना पड़ता है
नियम से
बहुत नाजुक होते हैं रिश्ते
पान की तरह
फेरना पड़ता है बार-बार
गलने से बचाने के वास्ते
सूखने न पाए इसके लिए
लपेटनी पड़ती है नम चादर
स्वाद और रंगत के लिए
चूने कत्थे की तरह
पिसना पड़ता है, गलना पड़ता है
इसके बाद भी
इलाइची सी सुगंध
प्यार से ही आती है ।