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पापड़ बेलते-बेलते / औरत होने की सज़ा / महेश सन्तोषी

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मूँग, उड़द और चने के
ये पापड़ औरों के लिये होंगे
हमारे लिये तो ये सिर्फ
पेट के पापड़ हैं
जो हमने
अपना शरीर सुखाकर
और जिन्दगी की ऊर्जा देकर
हर रोज बेले हैं
हमारे शरीर इसलिये सूखे हैं
कि कई वर्षों से ये आधे भूखे हैं
उम्र के साथ शुरू हुई थी
जो भूख की लड़ाई
उसे एक सफर तो मिला
बस मंजिल ही नहीं मिल पाई
हमने आटे के साथ-साथ
अक्सर आँसुओं को मीड़ा है
हमारी पलकों से जो
रह रहकर बही है
वह एक पूरे के पूरे
परिवार की पीड़ा है
हमने कतारों में दुख
अपनी बाहों पर झेले हैं, थोड़े से बताशों
के लिये पड़ोस
के पापड़ नहीं बेले हैं
दर्द से चीखती हैं
जब-जब हमारी बाहें
डर-सा लगता है
बेलनों में न बदल जाये
जिन्दगी चल रही है
पेट से पापड़ बाँधे
कभी भूख के पीछे-पीछे
कभी भूख के आगे-आगे।