पापा, वह आप ही हैं / जंगवीर सिंंह 'राकेश'
एक उंगली पकड़कर, जिनकी
अंधेरे में उजाला देखा
जिनके कंधों पर चढ़कर, मैंने
जग सारा संग्रहालय देखा ।
पापा, वह आप ही हैं . . .
भावों के प्रवाह में, सागर को
नदी के, संग में, बहते देखा
बचपन से,चंचलता की नावें
एक माझी, पार लगाते देखा ।
वह माझी, पापा आप ही हैं. . .
एक अंकुरित पौधे को,फलने,
फूलने, दीर्घ वृक्ष बनने तक
ह्रदय लहू से, सीचते देखा
अपने हाथों की रेखाओं मे भी,
जिसने सन्तानों का जीवन देखा ।
जीवनदाता, पापा वह आप ही हैं . . .
विपदा, हर समस्या के सामने
सीना तानें, एक शख्स देखा
बुराई की लपटों से दरखते बचाते
जलता सदैव एक वृक्ष देखा ।
वह वृक्ष, पापा आप ही हैं . . .
एक सन्त साधना जैसे करता है
वैसे मेरे जीवन पे ध्यान लगाते देखा
मन की गगरी को, भरने वाला
बस! एक वही, बादल देखा ।
वह बादल, पापा आप ही हैं . . . . ।