पापा और मैं / जलज कुमार अनुपम / जलज कुमार अनुपम
जब मैं छोटा था
मेरे पापा
सबसे समझदार लगते थे
इस दुनिया में
मैं जैसे-जैसे बड़ा होते गया
वह मुझे नासमझ लगने लगे
मैं ठगता गया
वे जानबुझ कर ठगाते गये
अब वे बेकार लगते हैं
वे कल भी कुछ समझाते थे
तब बुरा लगता था
आज भी लगता है
पर वे समझाते रहते हैं
और मैं समझते रहता हूँ यह सोचकर
कि मेरी जो भी समझ बन पाई है
वह इनकी ही देन है
उनके लिए तो मैं
आजीवन बच्चा ही बना रहुँगा
जब कही मुझे जाना होता है दूर
कहते हैं सम्भल कर जाना
मुझे याद है कि मेरी हर जिद्द
उन्होनें अपने अरमानों की कीमत पर
पूरी की है।
आज भी जब कही फँस जाता हूँ
बुरी तरह से
सामने कुछ नहीं दिखता
और जैसे उनकी याद आती है
एक सम्बल मिलता है
तब लगता है कि
वे हर उपमा से बड़े हैं।
कविता की परिधि उनको समेट नहीं सकती
उनकी अवस्था और एहसास
तब समझ में और आई
जब मैं खुद बाप बना
और तब लगा कि
अपने बच्चों के होठों पर
हँसी देखने के लिए
सारे संसार से लड़ने वाला
सिर्फ पापा ही होते हैं।