पापा / निधि सक्सेना
पापा!!
मुझे आज भी याद है...
कन्यादान करते समय
पंडित द्वारा कराये संकल्प के बीच
मुझ पर अपलक ठहरी आपकी दृष्टि
मुझसे बारम्बार यही कह रही थी...
भले ही ये पंडित अपनी पोथी पढ़ कर कुछ भी कहें
मैं तुम्हें दान नहीं कर रहा हूँ
ये तो मेरे लिए स्वप्न में भी संभव नहीं बेटी...
तुम धड़कन हो मेरी
अनुभूति हो मेरी
ख़ुशी हो मेरी...
एक स्वतंत्र अस्तित्व हो तुम
कोई वस्तु नहीं
जिसे दानपात्र में डाल कर पुण्य कमा लूँ
और अगर ये किसी तरह का पुण्य है
तो ऐसे पुण्य का
कौड़ी बराबर भी मोल नहीं मेरे लिए...
अन्य संस्कारों की भाँति
ये भी एक रस्म भर है...
अपनी हर पुलक और हर परेशानी
हर विजय हर पराजय के साथ
तुम ताउम्र मेरी ही रहोगी...
मैंने भी आँखों ही आँखों में जवाब दिया था
हाँ पापा...
इस पाणिग्रहण संस्कार से हमारे बीच कुछ नहीं बदलेगा...
मेरा आप पर और आपका मुझ पर
हर अधिकार पूर्ववत रहेगा...
और यही विश्वास मुझे हर पल हिम्मत देगा...
आप मेरी जिंदगी के प्रथम पुरुष हैं पापा
आपको ही देख कर पुरुष की परिभाषा गढ़ी...
उसे जाना,उसकी छवि देखी
उससे प्रेम किया...
परंतु पापा
जैसा विशिष्ट...
जैसा अद्वितीय...
जैसा खूबसूरत...
जैसा प्रेमिल...
जैसा स्वतंत्र अहसास आप के साथ होता है
उसका नन्हा सा अंश भी
कहीं और उपलब्ध नहीं है
कहीं भी नहीं पापा...