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पापा / स्वप्निल श्रीवास्तव

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पापा के बच्चे अलग-अलग शहरों में रहते हैं
पहला बेटा- अमरीका की बहुराष्ट्रीय कम्पनी में ग़ुलाम है
दूसरा बंगुलुरु की किसी मशहूर फ़र्म में
सी० ई० ओ० के ओहदे पर लगा हुआ है
तीसरा समन्दर के किनारे बसे हुए
मुम्बई महानगर के बैंक में
बड़ा ओहदेदार है

          पापा अकेले पड़े हुए हैं पुराने घर में
          उस घर में जहाँ बारी-बारी
          पैदा हुए थे बच्चे
          उस घर में जहाँ बच्चों की माँ
          बच्चों के जवान होने से पहले
          दिवंगत हो गई थी

पापा तीनों बेटों को कंधों पर बिठाए
पार करते रहे ज़िन्दगी की वैतरणी

          बच्चों को पालने-पोसने में
          पापा की उम्र निकल गई
          बच्चों की छोटी-छोटी ज़रूरतों के लिए
          पापा निरन्तर खर्च होते रहे
          चुकाते रहे कर्ज़ की किश्तें
          उन्होंने बच्चों के सामने
          कभी नहीं की अपनी परवाह

पापा घर छोड़कर बच्चों के पास कम जाते हैं
जाते भी हैं तो जल्दी लौट आते हैं
बच्चों के पास पापा के लिए
इतना वक़्त कहाँ है भला

          तीज-त्यौहार के आसपास बच्चों को
          पापा की याद आती है तो
          डाल देते हैं चिट्ठी
          लेकिन कमबख़्त चिट्ठी त्यौहार के बाद मिलती है
          तब तक प्रतीक्षा में काठ हो जाते हैं पापा
          ज़िन्दगी का हिसाब-क़िताब जोड़ते-घटाते पापा

सोचते हैं आख़िर अकेलेपन के सिवा
उनके जीवन में क्या बचा है
हाँ, घर की कुछ स्मृतियाँ ज़रूर हैं
जिसके दम पर ज़िन्दा हैं वे