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पाप होने लगे धर्म की आड़ में / महावीर प्रसाद ‘मधुप’
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पाप होने लगे धर्म की आड़ में
नीति-पथ गर्क हैं स्वार्थ की बाढ़ में
फिक्र सब को है कुर्सी सलामत रहे
देश चूल्हे में जाए, गिरे भाड़ में
हो के आज़ाद भी आज लगता है यूँ
आसामां से गिरे, फँसे गए ताड़ में
ज़िन्दगी के सफ़र में सभी खो गए
दिन गुज़रते थे बचपन के जो लाड़ में
छोड़ पंछी नशेमन सभी उड़ गए
कौन हमदम किसी का है पतझाड़ में
राह जीवन की हमवार होती नहीं
मिलती मंज़िल नहीं, खेल-खिलवाड़ में
कैसे जाने ‘मधुप’ वो तपन जेठ की
तर-बरत हो जा सावन की बौछाड़ में