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पाया नहीं वो जो खो रहा हूँ / शाहिद कबीर

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पाया नहीं वो जो खो रहा हूँ
तक़्दीर को अपनी रो रहा हूँ

इस सोच में ज़िंदगी बिता दी
जागा हुआ हूँ कि सो रहा हूँ

फिर किस से उठेगा बोझ मेरा
इस फ़िक्र में ख़ुद को ढो रहा हूँ

काँटों को पिला के ख़ून अपना
राहों में गुलाब बो रहा हूँ

झरना हो नहीं हो या समुंदर
कूज़े में सब सुमो रहा हूँ

हर रंग गँवा चुका है पहचान
पानी में क़लम डुबो रहा हूँ

पत्थर के लिबास को मैं ‘शाहिद’
शीशे की सिलों पे धो रहा हूँ