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पारस / उपासना झा
Kavita Kosh से
तुम्हारे छूने भर से
सदियों से सोया हुआ एक गीत
जग आया है मेरी आवाज़ में
अब डोलती है निरापद
बूंदों की बोलियाँ
प्रतीक्षा जो बनाये रखती थी मुझे
अपनी गंध में उन्मत्त हिरण
उसने पा लिया है
कस्तूरी का स्रोत
बहती है एक धार ओजस्विनी
बहा ले जाती हैं
लाज के ऊंचे किले
मुक्त हृदय कब चिंता करता है
दाग लगने की
गाँठ पड़ने की
दिवा-रात्रि अनवरत जलते मन को
मिल गया है मानसरोवर