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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / द्वादश सर्ग / पृष्ठ - ७

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(11)
शार्दूल-विक्रीडित

है पाताल-पता कहाँ, गगन भी है सर्वथा शून्य ही।
भू है लोक अवश्य, किन्तु वह क्या है एक तारा नहीं।
संख्यातीत समस्त तारक-धारा के तुल्य ही लोक हैं।
लोकों की गणना भला कब हुई, होगी कभी भी नहीं॥1॥

क्या की है, यह सोचके, विबुध ने लोकत्रायी-कल्पना।
जो हैं ज्ञापित नाम से वसुमती, आकाश, पाताल के।
ता हैं नभ में अत: गगन ही संकेत है सर्व का।
जो हो, किन्तु रहस्य लोकचय का अद्यापि अज्ञात है॥2॥

तारों में कितने सहस्रकर से भी सौगुने हैं बड़े।
ऐसे हैं कुछ सूर्य ज्योति जिनकी भू में न आयी अभी।
होता है यह प्रश्न, क्या प्रलय में है धवंस होते सभी।
है वैज्ञानिक धारणा कि इसकी संभावना है नहीं॥3॥

ज्यों भू में बहु जीव नित्य मरते होते समुत्पन्न हैं।
वैसे ही नभ-मध्य नित्य बनते हैं छीजते लोक भी।
है स्वाभाविक प्रक्रिया यदि यही, तत्काल ही साथ ही।
सा तारक-व्यूह का विलय तो क्यों मान लेगा सुधी॥4॥

शंकाएँ इस भाँति की बहु हुई, हैं आज भी हो रही।
है सिध्दान्त-विभेद भी कम नहीं है, तर्क-सीमा नहीं।
तो भी है यह बात सत्य, पहले जो विश्व सूक्ष्माणु था।
सो कालान्तर में पुन: यदि बने सूक्ष्माणु वैचित्रय क्या॥5॥

वेदों से यह बात ज्ञात विबुधों के वृन्द को है हुई।
जो है सक्रिय भाग सर्व भव का सो तो चतुर्थांश है।
है शेषांश क्रिया-विहीन, अब भी, जो सर्वथा रिक्त है।
कैसी अद्भुत गूढ़ उक्ति यह है, सत्ता महत्ताअधिकतरंकिता॥6॥

जो है निष्क्रिय तीन अंश कृतियाँ जो हैं चतुर्थांश में।
पाएगा भव पूर्णता कब? इसे क्यों धीरे सकेगी बता।
होवेगा कब नाश सर्व भव का? कोई इसे क्यों कहे।
ये बातें मन-बुध्दि-गोचर नहीं, प्राय: अविज्ञेय हैं॥7॥

शास्त्रों में विधिक-कल्प के प्रलय के कालादि की कल्पना।
है गंभीर विचार-भाव-भरिता विद्वज्जनोद्वोधिकनी।
तो भी वे कह नेति-नेति वसुधा को हैं बताते यही।
है संसार रहस्य, है प्रकृति की मायातिमायाविनी॥8॥

जो पू परमाणु-वाद-रत हैं, विज्ञान-सर्वस्व हैं।
वे भी देख विचित्रता प्रकृति की होते जड़ीभूत हैं।
क्यों कोई खग विश्वव्याप्त नभ की देगा इयत्ताक बता।
कोई कीट वसुंधरा-विभव का क्यों पा सकेगा पता॥9॥

आविष्कारक कर्मशील बहुश: हैं मेदिनी में हुए।
इच्छा के अनुकूल कूल पर जा हैं शोधा भूय: किए।
पाए हैं उनके प्रयत्न-कर ने प्राय: कई रत्न भी।
संसारांबुधिकरत्नराशि फिर भी दुष्प्राप्य दुर्बोधा है॥10॥

आके भूतल में विलोक निशि में आकाश-दृश्यावली।
होता है मनुजात बुध्दिहत-सा सोचे स्वअल्पज्ञता।
पाए हैं कुछ बुध्दिमान जन ने एकाधा मोती कहीं।
बेजाने संसार-सिंधु अब भी छाने बिना है पड़ा॥11॥

वे थे शक्ति-निधन साथ उनका था दानवों ने दिया।
क्या है मानव-शक्ति, और उसकी क्या है क्रियाशीलता।
मेधावी सुर ने समुद्र मथ के जो रत्न पाए गिने।
तो क्यों रत्न-समूह विश्व-निधिक के पाते धारा स्वल्पधी॥12॥