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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / प्रथम सर्ग / पृष्ठ - ६

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भारतीय महत्ता

शार्दूल-विक्रीडित
                है आराधक सर्वभूत-हित का आधार सद्वृत्तिका।
                व्याख्याता भव-मुक्ति-भुक्ति-पथ का त्राता सदासक्ति का।
                पाता है जन पूत भाव निधिक का दाता महामंत्र का।
                ज्ञाता भारत है समस्त मत का धाता धराधर्म का॥1॥
    गीत

भारत है भव-विभव-विधाता।
उसका गौरव-गीत प्रगति पा वसुधा-तल है गाता॥1॥

            किसके पलने में पल पहले हुई प्रकृति-कृति पुलकित।
            किसका ललित विकास विलोके हुई लोक-रुचि ललकित॥2॥

मानस-तम तमारि बन पाया किसका मुख आलोकित।
पा किसका आलोक हो सका लोक-लोक आलोकित॥3॥

            किसके प्रथम प्रभात में हुआ भूतल भूति-विभासित।
            किसने बन सित भानु-सिता से की समस्त वसुधा सित॥4॥

किसके आदिम तम उपवन में वह कुसुमाकर आया।
जिसने भू को कुसुमित, सुरभित, सफलित, सरस बनाया॥5॥

            हुआ कहाँ पर साम-गान वह जिसने सुधा बहाई।
            जिसकी स्वर-लहरी सुरपुर में लहराती दिखलाई॥6॥

बजी कहाँ वह मंजुल वीणा जो जगती में गूँजी।
जिसकी व्यंजक ध्वनि बन पाई धरा-धर्म की पूँजी॥7॥

            किसकी कुंजों में मुरली का वह मृदु नाद सुनाया।
            जिसने जगत-विजित जीवों पर जीवन-रस बरसाया॥8॥

कौन है हृदय-तिमिर-विमोचन अंधा-विलोचन-अंजन।
सुख-सुमेरु का शिखर मनोहर, जन-मानस-अनुरंजन॥9॥

            सिध्दि सकल का सुन्दर साधन, विमल विभूति-सहारा।
            भारत है 'हरिऔध' ज्ञान-नभ-तल-उज्ज्वलतम तारा॥10॥

वसन्त-तिलका
                आलोक-दान-रत भारत है प्रभात।
                संसार-मानसर-जात प्रफुल्ल पद्म । है मंजु-भाव-गगनांगण का मंयक
                आनन्द-मंदिर-मनोज्ञ-मणि-प्रदीप॥11॥
शार्दूल-विक्रीडित
                माता है मृदु भाव की, मनुजता की है महा साधना।
                पाता है भव-शान्ति की सरलता की सिध्दि-भूता सुधा।
                है आधार विभूति की, सुहृदता-राका-निशा-चंद्रिका।
                सद्भावामृत सिंचिता श्रुति-रता है भारती सभ्यता॥12॥

छाया था जब अंधकार भव में, संसार था सुप्त सा।
ज्ञानालोक-विहीन ओक सब था, विज्ञान था गर्भ में।

ऐसे अद्भुत काल में प्रथम ही जो ज्योति उद्भूत हो।
ज्योतिर्मान बना सकी जगत को है वेद-विद्या वही॥13॥

                नाना देश अनेक पंथ मत में है धर्म-धारा बही।
                फैली है समयानुसार जितनी सद्वृत्तिक संसार में।
                देखे वे बहु पूत भाव जिनसे भू में भरी भव्यता।
                सोचा तो सब सार्वभौम हित के सर्वस्व हैं वेद ही॥14॥

मूसा की वह दिव्य ज्योति जिसमें है दिव्यता सत्य की।
सच्चिन्ता जरदस्त की सदयता उद्बुध्दता बुध्द की।
ईसा की महती महानुभवता पैगम्बरी विज्ञता।
पाती है विभुता-विभूति जिससे है वेद-सत्ता वही॥15॥

                नाना धर्म-विधन के विलसते उद्यान देखे गये।
                फूले थे जितने प्रसून उनमें स्वर्गीय सद्भाव के।
                फैली थी जितनी सुनीति-लतिका, थे बोध-पौधे लसे।
                जाँचा तो श्रुतिसार-सूक्ति-रस से थे सिक्त होते सभी॥16॥

देख ग्रंथ समस्त पंथ मत के, सिध्दान्त-बातें सुनीं।
नाना वाद-विवाद-पुस्तक पढ़ी, संवाद वादी बने।
जाँची तर्क-वितर्क-नीति-शुचिता, त्यागा कुतर्कादि को।
तो जाना सर्वज्ञता जगत की है वेद-भेदज्ञता॥17॥