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पारिजात / अयोध्या सिंह उपाध्याय ‘हरिऔध’ / षष्ठ सर्ग / पृष्ठ - ४

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विकंपित वसुंधरा
(5)

वसुंधरा ! यह बतला दो तुम, क्यों तन कम्पित होता है।
क्यों अनर्थ का बीज लोक में कोप तुम्हारा बोता है।
माता कहलाती हो तो किसलिए विमाता बनती हो।
पूत पूत है, सब पूतों को तुम्हीं क्या नहीं जनती हो॥1॥

पूत कुपूत बने, पर माता नहीं कुमाता होती है।
अवलोकन कर व्यथा सुतों की बिलख-बिलख वह रोती है।
फिर किसलिए कुपित होकर तुम महा गर्जना करती हो।
भूरि भीति किसलिए भयातुर प्राणिपुंज में भरती हो॥2॥

क्यों पल में अपार क्रन्दन-रव घर-घर-में भर जाता है।
कोलाहल होने लगता है, हा-हाकार सुनाता है।
दीवारें गिरने लगती हैं, सदन भू-पतित होते हैं।
गेहदशा अवलोक सैकड़ों दुखी खड़े दुख-रोते हैं॥3॥

कितने छत के टूट पड़े अपने प्रिय प्राण गँवाते हैं।
कितने दबकर, कितने पिसकर मिट्टी में मिल जाते हैं।
अंग भंग हो गये अनेकों आहें भरते मिलते हैं।
भय से हो अभिभूत सैकड़ों चल दल-दल-से हिलते हैं॥4॥

कितने भाग खड़े होते हैं, तो भी प्राण न बचते हैं।
कितने अपनी चिता बहँक अपने हाथों से रचते हैं।
कितने धन के, कितने जन के लिए कलपते फिरते हैं।
कितने सब-कुछ गँवा प्रबलतम दुख-समूह से घिरते हैं॥5॥

कितने चले रसातल जाते हैं, कितने धाँसे जाते हैं।
कितने निकली सबल सलिल-धारा में बहे दिखाते हैं।
बनते हैं धन-जन-विहीन वांछित विभूतियाँ खोते हैं।
नगर-निकर हैं नगर न रहते,धवंस ग्राम पुर होते हैं॥6॥

जल से थल, थल से जल बन बहु परिर्वत्तन हो जाते हैं।
कतिपय पल में ही ये सा प्रलय-दृश्य दिखलाते हैं।
कैसी है यह वज्र-हृदयता? क्यों तुम इतनी निर्मम हो।
क्यों संहार मुर्ति धारण कर बनती तुम कृतान्त-सम हो॥7॥

क्यों इतनी दुरन्तता-प्रिय हो, क्या न क्षमा कहलाती हो।
क्या तुम किसी महान शक्ति-बल से विवशा बन जाती हो।
यह सुनते हैं, शेषनाग के शिर पर वास तुम्हारा है।
क्या उसके विकराल विष-वमन का प्रपंच यह सारा है॥8॥

या सहस्र-फण-फूत्कार से जब बहु कम्पित होती हो।
तब सुधा-बुध खोकर विपत्तिक के बीज अचानक बोती हो।
या पुराण ने जिसकी गौरवमय गुणावली गाई है।
उस कच्छप की कठिन पीठ से तुम्हें मिली कठिनाई है॥9॥

या जिसके अतुलित बल से दानवता दलित दिखाती है।
उस वाराह-दशन से तुमको दंशनता मिल पाती है।
या भगवति वसुंधा! भव में वैसी ही तव लीला है।
जैसी प्रकृति अकोमल-कोमल अकरुण करुणाशीला है॥10॥

विभूतिमयी वसुधा
(6)
जब सहस्रकर छ महिने का दिवस दिखा छिप जाता है।
तब आरंजित क्षितिज अलौकिक दृश्य सामने लाता है।
उसकी ललित लालिमा संध्या-कलित-करों से लालित हो।
प्रगतिशील पल-पल बन-बन कनकाभा से प्रतिपालित हो॥1॥

रंग-बिरंगे लाल नील सित पीत बैंगनी बहु गोले।
है उछालने लगती क्षण-क्षण क्षिति-विमोहिनी छवि को ले।
उधार गगन में तरह-तरह के ता रंग दिखाते हैं।
बार-बार जगमगा-जगमगा अपनी ज्योति जगाते हैं॥2॥

इधार क्षितिज से निकले गोले ऊपर उठ-उठ खिलते हैं।
उल्कापात-समान विभाएँ भू में भरते मिलते हैं।
यों छ मास का तम करके कमनीय कलाएँ खोती है।
धारुव-प्रदेश की रजनी अतिशय मनोरंजिनी होती है॥3॥

हरे-भरे मैदान कनाडा के मीलों में फैले हैं।
जो हरियाली-छटा-वधू के परम छबीले छैले हैं।
जिनकी शस्य-विभूति सहज श्यामलता की पत रखती है।
जिनमें प्रकृति बैठ प्राय: निज उत्फुल्लता परखती है॥4॥

रंग-बिरंगे तृण-समूह से सज वे जैसे लसते हैं।
विपुल सुविकसित कुसुमावलि के मिस वे जैसे हँसते हैं।
वायु मिले वे हरीतिमा के जैसे नृत्य दिखाते हैं।
वैसे दृश्य कहाँ पर लोचन अवलोकन कर पाते हैं॥5॥

अमरीका है परम मनोहर, स्वर्ग-लोक-सा सुन्दर है।
जिसकी विपुल विभूति विलोके बनता चकित पुरन्दर है।
उसके विद्युद्दीप-विमण्डित नगर दिव्य द्युतिवाले हैं।
जिनके गगन-विचुम्बी सत्तार खन के सदन निराले हैं॥6॥

उनके कलित कलस दिनमणि को भी मलीन कर देते हैं।
दिखा-दिखा निज छटा क्षपाकर की छवि छीने लेते हैं।
उसका एक प्रताप जल-पतन का वह समाँ दिखाता है।
जिसपर मत्त प्रमोद रीझ मुक्तावलि सदा लुटाता है॥7॥

उसके विविध अलौकिक कल कुछ ऐसी कला दिखाते हैं।
जिन्हें विलोक विश्वकर्मा के कौशल भूले जाते हैं।
कितने आविष्कार हुए हैं उसमें ऐसे लोकोत्तर।
जिससे सारा देश गया है बहु अमूल्य मणियों से भर॥8॥

यूरप में अति रम्य रमा की मूर्ति रमी दिखलाती है।
विलस अंक में उसके विभुता मंद-मंद मुसकाती है।
प्राय: श्वेत गात के मानव उसमें लसते मिलते हैं।
सुन्दरता की कलित कुंज में ललित कुसुम-से खिलते हैं॥9॥

पारसता पैरिस-समान नगरों में पाई जाती है।
लंदन में नन्दनवन-सी अभिनन्दनता छवि पाती है।
प्रकृति-सुन्दरी सदा जहाँ निज प्रकृत रूप दिखलाती है।
स्विटजरलैण्ड-मेदिनी वैसी प्रमोदिनी कहलाती है॥10॥