पार्वती-मंगल / तुलसीदास / पृष्ठ 2
।।श्रीहरि।।
( पार्वती-मंगल पृष्ठ 2)
कुँअरि सयानि बिलोकि मातु-पितु सोचहिं।
गिरिजा जागु जुरिहिं बरू अनुदिन लोचहिं।9।
एक समय हिमवान भवन नारद गए।
गिरिबरू मैना मुदित मुनिहि पूजत भए।10।
उमहि बोलि रिषि पगन मातु मेलत भई।
मुनि मन कीन्ह प्रणाम बचन आसिष दई।11।
कुँअरि लागि पितु काँध ठाढ़ि भइ सोहई।
रूप न जाइ बखानि जानु जोइ जाहई।12।
अति सनेहँ सतिभायँ पाय परि पुनि पुनि।
कह मैना मृदु बचन सुनिअ बिनती मुनि।।
तुम त्रिभुवन तिहुँ काल बिचार- बिसारद।
पारबती अनुरूप कहिय बरू नारद।14।
मुनि कह चौदह भुवन फिरउँ जग जहँ तहँ।
गिरिबर सुनिय सरहना राउरि तहँ तहँ।15।
भूरि भाग तुम सरिस कतहुँ कोउ नाहिन।
कछु न अगम सब सुगम भयो बिधि दाहिन।16।
दाहिन भए बिधि सुगम सब सुनि तजहु चित चित चिंता नई।
बरू -प्रथम-बिरवा बिरचि बिरच्यो मंगला मंगलमई।।
बिधि बिलोकि चरचा चलति राउरि चतुर चतुरानन कही।
हिमवानु कन्या जोगु बरू बाउर बिबुध बंदित सही।2।
( इति पार्वती-मंगल पृष्ठ 2)