भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पार करूँ कैसे / रामइकबाल सिंह 'राकेश'
Kavita Kosh से
राग पीलू
पर करूँ कैसे दुर्गम पथ का विस्तार अपार?
शिलाखण्ड दुर्धर्ष, क्षितिज का सीमाहीन प्रसार!
भग्न दरारों, फरों, झाड़ों झंखाड़ों का जाल,
टेकड़ियों की उदर-दरी में निर्जनता विकराल,
चुभ-चुभ जाते काँटे पगतलियों में बारम्बार,
गगनपटल पर पोत रहा कालिमा तिमिर दुष्पार,
हहर-हहर कर प्रलय-प्रभंजन करता तीक्ष्ण प्रहार,
पार करूँ कैसे? दुर्गमता का विस्तार अपार?
बढ़ना ही बढ़ना है मुझकां लक्ष्य-शिखर की ओर,
मेरे रोम-रोम से उठती स्वर-झंकार मरोर,
नव स्वप्नों की कम्पन-लहरी रही मुझे झकझोर,
उठती मन-अम्बर में अरमानों की भँवर-हिलोर,
रह-रह कर बर्फीली आँधी छोड़ रही फुफकार,
पर मैं क्रमण करूँगा दुर्गमता का गहन पठार।
(15 अक्तूबर, 1973)