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पार कैसे जायेंगे दिन / पंख बिखरे रेत पर / कुमार रवींद्र

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बाढ़ आई
बह गये हैं नाव के पुल
पार कैसे जायेंगे दिन

द्वार तक बढ़ आये पानी
डर रहे घर
चौखटें हो गयीं
नदियों की धरोहर

घाट डूबे
भँवर में सूरज गये हैं घुल
पार कैसे जायेंगे दिन

एक कोने में पड़ी
डोंगी पुरानी
कह रही
छिछले सरोवर की कहानी

रात भर जूझे
थके हैं केवटों के कुल
पार कैसे जायेंगे दिन