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पार जाने का उतावलापन / गुलाब खंडेलवाल

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पार जाने का उतावलापन
हमेशा मुझे छलता रहा,
हर बार मैं बीच धारा में ही
नौका बदलता रहा.
मेरे जीवन की हरियाली
सदा आँसुओं से सींची गयी है,
विफलताओं के बिन्दुओं को जोड़-जोड़कर ही
यह रेखा खींची गयी है
फिर भी मेरी पराजय का  यह खँडहर
विजय के नभचुम्बी स्मारकों से बड़ा है
क्योंकि पत्थर की मूर्तियों के स्थान पर
इसमें एक जीवित मनुष्य खडा है.