भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पार लगी गइसे नइया / विनय राय ‘बबुरंग’

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हो भइया, पार लगी कइसे नइया।
पागल भइल खेवइया बा कि पागल भइल समइया
आन्हर भइल नजरिया बा कि गढ़ही भइल तलइया
हो भइया पार लगी कइसे नइया।।

रमुआ क जब सूरति देखलीं जइसे लागे चिरइया
चीलम चढ़ा के बम-बम बोले फूंके खूब रुपइया
हो भइया पार लगी कइसे नइया।।

नफरत बो के आगि लगावे घूमि के गांव नगरिया
ई अवसरवादी नारद बनि के बँटवावे अंगनइया
हो भइया पार लगी कइसे नइया।।

घुरला लेके गउंवा दउरे जबले रहे भंइसिया
भंइस मुअल त केहू न झांके अइसन आइल समइया
हो भइया पार लगी कइसे नइया।।

केतनो अरज सुनाईं रोईं सुने ना बात बहेलिया
जइसे कोइला सरफ से धोवले रंग ना बदले दइया
हो भइया पार लगी कइसे नइया।।

कइसे जमाना बदली बतावऽ ए बटोही भइया
अहम भाव जाई ना जबले हमें बनावे कसइया
हो भइया पार लगी कइसे नइया।।