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पावस-प्रात, शिलांग / अज्ञेय

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भोर बेला। सिंची छत से ओस की तिप्-तिप्! पहाड़ी काक
की विजन को पकड़ती-सी क्लांत बेसुर डाक-
'हाक्! हाक्! हाक्!'

मत सँजो यह स्निग्ध सपनों का अलस सोना-
रहेगी बस एक मुठ्ठी खाक!
'थाक्! थाक्! थाक्!'