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पावस की साँझ / नरेन्द्र शर्मा
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संध्या पावस की!
रंगों की बौछार कर रही संध्या पावस की!
दूर दीखता रंगमहल वह, जिसके फ़ीरोज़े के छज्जे;
सोने की दीवारें जिसकी, महराबी मानिक दरवज्जे;
जाते जाते उलझ गई रे संध्या पावस की!
इन्द्रनील के आसमान में दिखते रंग-बिरंगे बादल,
कहीं इन्द्रधनु के सतरंगों से भर जाता शून्य दिगंचल,
यह धनुषई चीर लहराती संध्या पावस की!
कहीं बेंगनी, जामानी, तो कहीं कत्थई, कहीं सुरमई,
लाल-सुनहले सौ रंगों से आसमान को शाम भर गई;
इन रंगों में डुबो गई मन संध्या पावस की!
मेरे प्राण परिन्दों से ही डूब डूब जाते रंगों में,
संध्या के सौ रंग, सौ तरह भर जाते मेरे अंगों में;
आज गगन-मन में बसती रे संध्या पावस की!