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पाश / अमरजीत कौंके
Kavita Kosh से
तुम्हारे जिस्म को
छलनी कर
उन्हें भ्रम था
कि तुम्हारे शब्द भी
खामोश हो जाएंगे
दफन हो जाएंगी
सारी कविताएँ
लेकिन वे नहीं थे जानते
कि कवि के मरने से
कभी कविता नहीं मरती
कविता तो जीवित रहती
साँसों से साँसों तक
आदमी से आदमी तक
पीढ़ियों से पीढ़ियों तक
पवन के रथ पर
हो कर सवार
तुम्हरे जिस्म को
छलनी कर के
उन्हें भ्रम था
कि पाश मर गया है
लेकिन पाश तो ज़िंदा है
हल चलाते किसानों के गीतों में
खिली कपास के फूलों
गाँवों की चौपालों में
अपने शब्दों में
पाश अभी जिन्दा है
खेत
अपने बेटों को
कभी मरने नहीं देते।