पाषाण यहाँ पूजे जाते / लाखन सिंह भदौरिया

पाषाण यहाँ पूजे जाते, पर यह भूखे भगवान नहीं।

भूखे मानव छटपटा रहे, दो-दो दाने को आज जहाँ,
मन्दिर में मौजें उड़ा रहे, पण्डे, महन्त, महाराज वहाँ,
फल, फूल, अन्न सड़ रहे, किन्तु भूखे, बेबस रो रहे इधर,
सतरंगी परियाँ नाच रहीं, हाला के प्याले पिये उधर,

प्रेयसि के गीत सुने जाते, क्रन्दन सुनने को कान नहीं।
पाषाण यहाँ पूजे जाते, पर यह भूखे भगवान नहीं।

दिन में दस-बार भोग लगते, नहलाके जिनको बार-बार,
प्रस्तर प्रतिमायें सोने के आभूषण पहने चार-चार,
जीवित जर्जर कंकालों को दो बूँद नहीं पानी मिलता,
वे ठिठुर-ठिठुर ही मर जाते, कोई न कफन दानी मिलता,

मखमल पाषाण पहनते हैं, मानव-तन को परिधान नहीं।
पाषाण यहाँ पूजे जाते, पर यह भूखे भगवान नहीं।

वर्षा, सर्दी बीता करती, सड़कांे के वृक्षों के नीचे,
कोरी रातें जाया करतीं, केवल आँखें मींचे-मींचे,
ग्रीषम की लपटें चलती हैं जिनका उर जला जलाने को,
सन् सन् झंझा के झोंके नित दौड़ा करते हैं खाने को,

पाषाणों को प्रासाद बनें, पर मानव को स्थान नहीं।
पाषाण यहाँ पूजे जाते, पर यह भूखे भगवान नहीं।

कवि बैठे बैठे देख रहे, पाखण्ड, ढोंग, ये अनाचार,
पूजा सिकी हो बतलादो, जग के मानव को एक बार,
जिससे यह पूजक पहचानें, वह पूजनीय भगवान कहाँ,
जिसकी पूजा करने में ही होगा उनका कल्याण यहाँ,

इस जग को पथ बतलादो कवि, जिसको निज पथ का ज्ञान नहीं।
पाषाण यहाँ पूजे जाते, पर यह भूखे भगवान नहीं।

वह देखो जीर्ण झोपड़ी में, भगवान आज भूखा बैठा,
है पेट पीठ से लगा हुआ, कंकाल लिये सूखा बैठा,
जिसमें श्वासें ही शेष रहीं, जठरानल जिसके है धधक रहा,
वह आज पुजापा पाने को, भगवान! तुम्हारा ललक रहा,

लो आज उसे तुम पहचानों जिसकी तुमको पहचान नहीं।
पाषाण यहाँ पूजे जाते, पर यह भूखे भगवान नहीं।

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