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पाषाण युग / शोभना 'श्याम'
Kavita Kosh से
ईंटें ही ईंटें
महानगर के वज़्ाूद में
मानो कुछ और नहीं
बस ईंटें ही ईंटें
ईंटें नीवों में
ईंटें दीवरों में
ईंटें छतो-मुंडेरों में
ईंटें मकानों के अंदर
ईंटें मकानों के बाहर हैं
ईंटों के बोझ तले
दब गए हैं घर
रह गए है मात्र रैन-बसेरे
ईंटें उतर चुकी हैं
इंसान के ज़्ोहन में
मन कर्म वचन में
नगर के चरित्र में
ईंट का जवाब
पत्थर से देने की प्रवृति
बजा रही है
ईंट से ईंट
मानवीय मूल्यों की
कुंठाओं की ईंटें ढोता
इंसान ख़ुद भी
बन गया है ईंट जैसा
क्या यह आरंभी है
एक और पाषाण है
एक और पाषाण युग का।