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पासबानी पे अँधेरे को तो घर पर रक्खा / परवीन शाकिर
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पास बानी पे अँधेरे को तो घर पर रक्खा
और चिरागों को तिरी राहगुज़र पर रक्खा
रह गया हाथ सदा तेग ओ सिपर पर रक्खा
हमने हर रात का अंजाम सहर पर रक्खा
इतना आसान न था वरना अकेले चलना
तुझसे मिलते रहे और ध्यान सफ़र पर रक्खा
उसकी ख़ुशबू का ही फैज़ान हैं अश आर अपने
नाम जिस ज़ख्म का हमने गुल ए तर पर रक्खा
पानी देखा न ज़मीं देखी न मौसम देखा
बेसमर होने का इलज़ाम शजर पे रक्खा