भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पासबानी पे अँधेरे को तो घर पर रक्खा / परवीन शाकिर

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पास बानी पे अँधेरे को तो घर पर रक्खा
और चिरागों को तिरी राहगुज़र पर रक्खा

रह गया हाथ सदा तेग ओ सिपर पर रक्खा
हमने हर रात का अंजाम सहर पर रक्खा

इतना आसान न था वरना अकेले चलना
तुझसे मिलते रहे और ध्यान सफ़र पर रक्खा

उसकी ख़ुशबू का ही फैज़ान हैं अश आर अपने
नाम जिस ज़ख्म का हमने गुल ए तर पर रक्खा

पानी देखा न ज़मीं देखी न मौसम देखा
बेसमर होने का इलज़ाम शजर पे रक्खा