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पास आना मना / शंभुनाथ सिंह

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पास आना मना
दूर जाना मना,
ज़िन्दगी का सफ़र
क़ैदख़ाना बना ।

चुप्पियों की परत
चीरती जा रही
चीख़–चीत्कार
बेइन्तिहा दूर तक,
पत्थरों के बुतों में
बदलने लगे
साँस लेते हुए
सब मकाँ दूर तक।

भाग कर आ गए
हम जहाँ,
उस जगह
तड़फड़ाना मना
सोचना और आँसू
बहाना मना ।

पट्टियों की तरह
जो बँधी ज़ख़्म पर
रोशनी मौत
की लोरियाँ गा रही,
आ दबे पाँव
तीखी हवा जिस्म पर
आग का सुर्ख़
मरहम लगा जा रही,

इस बिना नाम के
अजनबी देश में
सर उठाना मना
सर झुकाना मना
देखना और आँखें
मिलाना मना ।

आँख अन्धी हुई
धूल से, धुन्ध से
शोर में डूबकर
कान बहरे हुए,
कोयले के हुए
पेड़ जो ये हरे
राख के फूल
पीले सुनहरे हुए,

हुक्मराँ वक़्त की
यह मुनादी फिरी
मुसकराना मना
खिलखिलाना मना,
धूप में, चाँदनी में
नहाना मना ।

भूमि के गर्भ में
आग जो थी लगी
अब लपट बन
उभर सामने आ गई,
घाटियों में उठीं
गैस की आन्धियाँ
पर्वतों की
धुएँ की घटा छा गई,

हर तरफ़ दीखती हैं
टँगी तख्तियाँ –
'आग का क्षेत्र है
घर बनाना मना,
बाँसुरी और
मादल बजाना मना ।’