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पास आने की बात करते हैं / सतीश शुक्ला 'रक़ीब'
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पास आने की बात करते हैं
मुस्कुराने की बात करते हैं
लूट कर दौलते सुकूँ आख़िर
किस ख़ज़ाने की बात करते हैं
दिल तो मानिन्दे संग है फिर भी
दिल लगाने की बात करते हैं
रूठने का नहीं है ढब जिनको
वो मनाने की बात करते हैं
जब किया ही नहीं कोई वादा
क्या निभाने की बात करते हैं
सादगी से भुला के ख़्वाबों में
याद आने की बात करते हैं
मालो-ज़र के लिए फ़क़त देखो
गिड़गिड़ाने की बात करते हैं
छोड़ जाना ही गर है याँ सब कुछ
क्यों बचाने की बात करते हैं
चोट लगती है मेरे दिल पे 'रक़ीब'
जब वो जाने की बात करते हैं