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पास है तुमको अगर पिछली शनासाई का / सरवर आलम राज़ ‘सरवर’

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पास है तुम को अगर पिछली शनासाई का
आओ दुहरायें फ़साना ग़म-ए-तन्हाई का!

हुस्न को शौक़ है गर अन्जुमन-आराई का
आए देखे वो तमाशा मिरी रुस्वाई का!

ज़िन्दगी! मैं तुझे मर मर कर जिए जाता हूँ
कुछ तो इनाम दे इस काफ़िया-पैमाई का!

ख़ुद-परस्ती का यह इल्जाम? अयाज़न-बिल्लाह!
मैं तो इक अक्स हूँ उस जल्वा-ए-यकताई का!

क्यों तुझे शाम-ओ-सहर ख़दशा-ए-बदनामी है?
कौन सुनता है फ़साना तिरे सौदाई का!

गिरया-ए-नीम-शबी, आह-ए-ग़म-ए-सुब्हगही!
और क्या ज़िक्र हो उस पैकर-ए-ज़ेबाई का?

जान से जा के मिली फ़िक्र-ए-दो-आलम से निजात
शुक्रिया आप के एजाज़-ए-मसीहाई का!

क्या समझते हो तुम अपने को बताओ "सरवर"?
दावा आख़िर है ये किस बात पे दानाई का?