पाहुने फागुन आएरी / मोहन अम्बर
पाहुने फागुन आये री, मिलन की सुधियाँ गाये री।
देख मंदिर के माथे स्वर्ण,
लग रहा सूरज दानी कर्ण।
कुँवारा हल्दी जैसा पँथ, उषा पर धूल उड़ायेरी,
मिलन की सुधियाँ गाये री, पाहुने फागुन आये री।
फूल के साथ शूल-सी आग,
भ्रमर फिर भी करता अनुराग।
साँस में सारा दर्द बटोर, गंध ब्याह रचाये री,
मिलन की सुधियाँ गाये री, पाहुने फागुन आये री।
देख अनधुनी रूईं-सी धूप,
निखारे जाती यौवन-रूप।
रूप के दरस-परस के लिये, आज तो प्राण पिराये री,
मिलन की सुधियाँ गाये री, पाहुने फागुन आये री।
संतरे के छिलके-सी साँझ,
नयन में सोना देती आँज।
दीप से लगते तरू के पात, पखेरू डर-डर जाये री,
मिलन की सुधियाँ गाये री, पाहुने फागुन आये री।
तुम्हारे अधरों जैसे मेघ,
गगन भी विस्मित जिनको देख।
चित्र यह इतना चुभता सत्य, याद की अगन बढ़ाये री,
मिलन की सुधियाँ गाये री, पाहुने फागुन आये री।
उगा पहला-पहला नक्षत्र,
कि जैसे आये तेरा पत्र।
हृदय की पुलक नयन के द्वार, रक्त से अश्रु गिराये री,
मिलन की सुधियाँ गाये री, पाहुने फागुन आये री।
पाहुने फागुन आये री, मिलन की सुधियाँ गाये री।