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पाहुन आये हैं / शिव मोहन सिंह

अमराई के द्वार आज फिर
पाहुन आये हैं ।
पूस-माघ को पिघलाकर कुछ
फागुन लाये हैं ॥

आज कई दिन बाद हवा ने
केश सँवारा है।
दरक गया है दर्पण जिसमें
रूप निहारा है।
पोर-पोर रस-सिक्त हुआ तन
हम शरमाये हैं ॥

मौसम के सोते सूखे हैं
प्यास बुझाने में ।
टूटा कितनी बार सजीला
मन मुस्काने में ।
वारिद धर्म निभायेंगे या
यूँ ही छाये हैं !!

बंद पलक संवाद हुआ है
भौंरे कलियों में !
आँगन से दालान रूठकर
बैठा गलियों में ।
भाव भरे दो कलश द्वार पर
आ टकराये हैं ॥

सावन ने बौछार भेज कर
नेह जताया है ।
डाल झुकाने लगे टिकोरे
सिर चकराया है ।
इन्द्रधनुष के रंग बिखर कर
मन पर छाये हैं ॥