भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पाहुन प्रवासी / मृदुल कीर्ति

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

शत दल के बंध खुले, झर -झर मकरंद घुले
सूरज के बटखों से , केसर के खेत तुले .
सरसों के खेतों नें बांटी पीली पाती ,
पाहुन प्रवासी को धड़कनें बुलाती।

भैया का आँचल तू , ममता का मोती
भैया की राखी , जो बहना पिरोती।
दादी का चश्मा तू, दादा की लाठी ,
पाहुन प्रवासी को धड़कनें बुलातीं।

बौर की सुगंध और कंचे की गोली
अमियन के बाग़ और कोयल की बोली.
ऋषियों की पुण्य भूमि , भारत की माटी ,
पाहुन प्रवासी को धड़कनें बुलातीं।

आकुल हैं प्राण कंठ , पल-पल निहारे पंथ,
बीते दिन बाँचे मन जैसे कोई दिव्य ग्रन्थ।
तुलसी की मंजरी तू, मंदिर की बाती.
पाहुन प्रवासी को धड़कनें बुलातीं।

पाहन से पल-पल हैं पाहुन की याद में,
जानो क्या पीर जो होती है बाद में
पिंजर रह जाए , मन का कीर संग जाती
पाहुन प्रवासी को धड़कनें बुलातीं।
पाहुन प्रवासी को धड़कनें बुलातीं।