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पाहुन / मनोज शांडिल्य

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आइ बड्ड अबेर सँ टूटल निन्न
आ, होइते सज्ञान
भेल छी फिरीशान
माथ मे हहाइत डेराओन प्रश्न सभक
भीषण बिहाड़ि सँ

अहलभोरे आयल छलथि किछु पाहुन सभ
हमरा सूतल देखि
छोड़ि गेल छलथि अपन किछु निसान

उठिते देखलहुँ ओछाओन पर पसरल
उजड़ल-उपटल गाछ-बिरिछ
डायनामाइट सँ राइ-छित्ती भेल पहाड़क सहस्रो खंड
पोखरि-डबराक कतेको प्रेत नचैत
प्रदूषित वायु ओतय कात मे खोंखैत
मोबाइल टावर सँ लटकल कार-कौआ आ बगराक लहास
गंगा-नर्मदाक विलुप्त होइत विश्वास

सिरमा लग दहा क’ आबि गेल छल
कोटिशः मृत समुद्री माछ
आ, गेरुआक त’र मे भेंटल
समस्त वन्य-प्राणीक हस्ताक्षरित
जीवित रहबाक मूलभूत अधिकारक आवेदन पत्र

की देखैत रही निन्न सँ जगलाक बादहु स्वप्न?
ओ हमर ओछाओन छल, आकि
बीच शहर मे तिक्ख रौद मे सेकाइत कब्रिस्तान?

नै, नै!
किन्नहु नहि छल ओ स्वप्न
अबस्से आयल रहथि पाहुन सभ
करबाक लेल हमरा सँ मारिते रास प्रश्न
रहथि धरि बेस संस्कारी
निन्न मे नहि देलनि विघ्न
चुपचाप पैसि जाइत गेलाह मस्तिष्क मे
आ उठओने छथि प्रश्नक भयाओन बिर्रो

आ हम, एहि बिहाड़ि मे
छी पटका रहल निरंतर
उत्तर अछैतो
छी सोलह आना निरुत्तर!