भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पा-बा-गिल सब हैं रिहाई की करे तदबीर कौन / परवीन शाकिर
Kavita Kosh से
पा-ब-गिल<ref>दलदल में फँसे हुए पाँव</ref> सब हैं रिहाई की करे तदबीर<ref>युक्ति</ref> कौन
दस्त-बस्ता<ref>हाथ बाँधे हुए</ref> शहर में खोले मेरी ज़ंजीर कौन
मेरा सर हाज़िर है लेकिन मेरा मुंसिफ़<ref>न्यायाधीश</ref> देख ले
कर रहा है मेरी फ़र्द-ए-जुर्म<ref>आरोप-पत्र</ref> को तहरीर कौन
आज दरवाज़ों पे दस्तक जानी-पहचानी-सी है
आज मेरे नाम लेता है मिरी ताज़ीर<ref>दंड</ref> कौन
कोई मक़तल<ref>वध-स्थल</ref> को गया था मुद्दतों पहले मगर
है दरे-ख़ेमा पे अब तक सूरते-तस्वीर कौन
मेरी चादर तो छिनी थी शाम की तन्हाई में
बे-रिदाई को मिरी फिर दे गया तशहीर<ref>विज्ञापन,प्रचार </ref> कौन
शब्दार्थ
<references/>