भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिंक-गुलाबी / अभिनव अरुण

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

‘कसकर बंधी हुई आकर्षक वस्तु का हर हिस्सा
गुलाबी हो ज़रूरी नहीं’
‘ज़रूरी नहीं पृथ्वी का गोल होना
वह तुम्हारी हथेलियों के स्पर्श से स्पंदित हो यह भी ज़रूरी नहीं’
इसीलिए अरस्तू ने अनायास वह देखा जो तुमने छिपाया
अनायास उसे वह हुआ जो वर्जित है
और कबीर के कहने पर नाहक ही तुम परेशान हुए
जानते नहीं मधुमास की आस लिए
पर्वत चाँद की सतह से उलटे लटके हैं
मधुमक्खी के छत्ते की मानिंद
शहद का स्खलन साइत देखता है क्या ? नहीं न
न ही नसों का आवेग बंधा होता है संस्कृति की डोर से
सो सितारों की ढिबरी भी यादगार सीन को छछनाती
झीनी झील में डूब बुझी
अप्रैल २८ का नहीं हुआ चाहे लीप इयर ही क्यों न हो
पार्कों में पूरी रात कौन रहता है
किसलिए वैलेंटाइन को वर्षपर्यंत नींद नहीं आती
माल की छत से घरों तक सब कुछ साफ़ साफ़ दिखता है
बयालीस डिग्री की गर्मी देखी है
करीने से कटी खरबूजे की फांकें जलने लगती हैं
प्यास नीली पीली तस्वीरों से नहीं बुझती न ही बंद बोतलों से
दरस परस मज्जन अनुपाना कहा है संतों ने
जो मिल गया उसी को मुकद्दर समझ लिया
मियाँ मजरूह के लिए दामन वादियाँ बाहें रास्ते
दर हक़ीकत झाड़ झंखाड़ नालियाँ ही हैं
मखमली ओस की परत के नीचे का सच
कविता लॉजी तार्किक हो बेहतर क्लाइमेक्स वाली
मियाँ यह भी ज़रूरी नहीं
सो चार बार बोलो चाहे चौआलीस बार
हाथ कंगन को बाली क्या
जगन्नाथ को हाली क्या
ज़िहाले मस्कीं खंडाला के खम्भे पर
दम तोड़ रही
सो गया ये जहां सो गया आसमां
अपुन को भी सोने का है
ख़ामखा न्यू पोएट्री में टाइम खोटा काहे को करने का