पिंगला का अभिसार / राधा मोहन गड़नायक / दिनेश कुमार माली
रचनाकार: राधामोहन गडनायक(1911)
जन्मस्थान: करंड़ापाल, ढेंकानाल
कविता संग्रह: मेघदूत(1931), विप्लवी राधानाथ(1938), काव्यनायिका(1943), उत्कलिका(1945), स्मरिणका(1950), मौसूमी(1951), दूइटि ताहार डेना(1954), पशु पक्षीर काव्य(1959), धूसर भूमिका(1960), कुमार संभव(1960), शामुकार स्वप्न(1961),कौशोरिक ,दीपशिखा,बनराजी नीला
(1)
न आना और रसिक नागर, मेरे पुर
नगर-वधू मैं पिंगला आज जा रही दूर
फूल- सेज और बिछाउंगी नहीं, बैठुंगी सारी रात
नृत्य -दीप भी जलाऊँगी नहीं, करूंगी शून्य-संघात
किसी के आगे दिखाउँगी नहीं, प्रीति का अभिनय
रात के असार सपनों जैसे टूट गई मेरी लय
मेरे मन को मिला है आज दिव्य परम धन
मर्त्य -पथ का अमर बंधु अंतर-विमोहन।
मेरे इस जीवन के कीचड़ में खिले कमल शतदल
रिक्त मेरी सूक्ति के गर्भ में फल रहे मुक्ताफल
चाह नहीं धन- दौलत, मणि-कंचन माला
चाह नही विलास-कुंज चारु-चित्रशाला
न आना और रसिक नागर, मेरे पुर
नगर-वधू मैं पिंगला आज जा रही दूर
(2)
आज इस मधुर निशीथ लगन में स्निग्ध धरती सारे
गगन में हंस रहे मोहन इन्दु, हंस रहे मुग्ध -तारे
देख- देखकर फिर उछल पड़ी शुभ्र-ज्योत्सना सौंदर्य
स्निग्ध समीर में धीरे बहती मधुर-लहर-प्राचुर्य
तैरता आता, मेरे बंधु,स्पर्श आहा! अति सुमधुर
अंग फलक में पुलकित हो उठी बारिश-बूँद प्रचुर
फिर बजने लगी मंजु-मुरली किसी अनजाने देश में
जीवन-यमुना में जान लौट आई मंजु मदिरा वेश में
कारागृह तोड़कर जा रही मैं जगाने मुक्तधार
जा रही आज, मेरे प्रियतम ! करने जीवन का अभिसार
नहीं आज मेरे बाधा-बंधन सभी गए टूट
उन्मुक्त नदी के सम मैं आज गई हूँ छूट
शत वन-गिरि कांतार घूम रही लेकर प्रेम-धन
बंधु मेरे, प्रेम-सिंधु-चरण में ढाल दूंगी यह जीवन
(3)
न हुई मैं आज खिलौना, नही हूँ वार-विलासिनी
जगत के पथ में जा रही आज प्रेम - सन्यासिनी
मुक्त भुवन में घूमूँगी खुशी से मुक्त आकाश -तल
धोऊंगी प्राण-कलुष-कालिख डालकर अश्रु -जल।
क्षुर्ण है मेरा यौवन- धन, पूर्ण है मेरा रंगरुप
प्रेम - आग लगाकर मेरे प्रियतम की करुंगी आरती-धूप
उषाकाल गगन में देखूंगी बंधु का रुप- नित
गगन, भुवन, पवन में सुनुंगी उसके मुरली-गीत
चांदनी-रात पुलक में पीऊँगी बंधु की हास-सुधा
भूलूँगी प्राणों की आकुल प्यास भूलूँगी प्राण- क्षुधा
जमीं पर सोऊँगी खुशी से तिनके के शयन
देखूंगी ऊपर नील-गगन, मुग्ध नयन
बंधु, आँखें बंद करूंगी देखते सपन
साक्षी होंगे गगन-भुवन, चंद्र-तपन
(4)
विदा ले रही हूँ विदेह नगर,विदा ले रही आज
भूल जाओ मुझे और मेरे घृण्यकलुष राज
स्वर्ग की मैं अमर-कन्या, मैं नारी, मैं देवी
पुण्यभूमि पर बन गई पतित घृण्य-सेवी ।
अमृत पीकर आई थी यहाँ, हाय ! मैंने यह क्या किया !
विषम-विष को नागिन बनकर सृष्टि में फैलाया
उस विष से जगत जलाया,मैं भी जली उस ताप
पुण्य जीवन, पुण्य भुवन में भरा खाली पाप
जीवन के मेरे प्रियतम ! आज देख यह कलुष गति
मंजु- मधुर मुरली गान ने आनंदित किया अति
पतित पावन बंधु, अब यह मेरी पारसमणि
पुण्य स्पर्श से स्वर्ण बनाएगी मेरे सारे अंग गुणी।
विदा ले रही हूँ विदेह नगर, विदा ले रही हूँ आज
भूल जाओ मुझे, और मेरे घृण्य कलुष राज