भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

पिंजरे के तार तोड़कर / एक बूँद हम / मनोज जैन 'मधुर'

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

चले गए बाबूजी
घर में
दुनिया भर का
दर्द छोड़कर

शूल सरीखी, नजर बहू की
बोली लगती नदी लहू की
बेटा नाजुक हाल देखकर
चल देता है, दृष्टि मोड़कर

ताने सुनती, कैसे-कैसे
अम्मा शिलाखण्ड हो जैसे
लिए गोद में कुंठा बैठी
अपने दोनो हाथ जोड़कर

गहन उदासी अम्मा ओढे
शायद ही अब चुप्पी तोड़े
चिड़िया-सी उड़ जाना चाहे
तन पिंजरे के तार तोड़कर