भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
पिंजरे में बंद मैना / सुदर्शन रत्नाकर
Kavita Kosh से
जब भी खुलता है पर्दा
सामने वाली खिड़की का
दिखता है एक चेहरा
बेचारगी भरा
बड़ी बड़ी तरल आँखें
ताकती हैं मुझे
जिन में तैरते हैं कई प्रश्न
जाने कितने-कितने अस्पष्ट सपने
जिन्हें मैं पढ़ लेती हूँ
बिन देखे मन उसका
वह नन्ही मैना जो पिंजरे में बंद है।