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पिछली तारीख़ का अख़बार सम्हाले हुये हैं / प्रखर मालवीय 'कान्हा'
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पिछली तारीख़ का अख़बार सम्हाले हुये हैं
उनकी तस्वीर को बेकार सम्हाले हुये हैं
यार इस उम्र में घुँघरू की सदायें चुनते
आप ज़ंजीर की झंकार सम्हाले हुये हैं
हम से ही लड़ता-झगड़ता है ये बूढा सा मकां
हम ही गिरती हुई दीवार सम्हाले हुये हैं
यार अब तक न मिला छोर हमें दुनिया का
रोज़े-अव्वल ही से रफ़्तार सम्हाले हुये हैं
जिनके पैरों से निकाले थे कभी ख़ार बहुत
हैं मुख़ालिफ़ वही, तलवार सम्हाले हुए हैं
लोग पल भर में ही उकता गये जिससे ‘कान्हा’
हम ही बरसों से वो किरदार सम्हाले हुए हैं