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पिछले पन्नों में लिखी जाने वाली कविता / तिथि दानी ढोबले

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 अक्सर पिछले पन्नों में ही
लिखी जाती है कोई कविता
फिर ढूँढती है अपने लिए
एक अदद जगह
उपहार स्वरूप दी गई
किसी डायरी में
फिर किसी की ज़ुबाँ में
फिर किसी नामचीन पत्रिका में।

फिर भी न जाने क्यों
भटकती फिरती है ये मुसाफ़िर
खुद को पाती है एकदम प्यासा
अचानक एक कृत्रिम रेगिस्तान में
जिसमें रहता है आज का सारा कुलीन वर्ग
रेगिस्तान से उठते बवंडर संग उड़ चलती है ये
बवंडर थककर ख़त्म कर देता है अपना सफ़र

लेकिन ये उड़ती जाती है
और फैला देती है अपना एक-एक क़तरा
उस अनंत में, जो रहस्यमयी है
लेकिन एक ख़ास बात
इसके बारे में,
आग़ोश से इसके चीज़ें
ग़ायब नहीं होतीं
और न ही होती है
इनकी इससे अलग पहचान

लेकिन यह कविता
शायद ! अपने जीवन काल में
सबसे ज़्यादा ख़ुश होती है
यहाँ तक पहुँचकर,
क्योंकि, ब्रह्माँड के नाम से जानते हैं
हम सब इसे।