पिछाण / संजय आचार्य वरुण
म्है थनै
कीं भी नाम देवणौं
ठीक नीं समझूं
क्यूं के
तू आज खड़ौ है
म्हारै सामीं
एक अणबूझी आडी बण’र
म्हनै इचरज है के
म्हैं क्यों नी सोध पायौ
अबार तांई
थारौ उत्तर।
जद कदै लागै है म्हनै
के अबै तो
म्हें थारै नैड़ो हूं
तो निजर आवै
थारै अर म्हारै बिचाळै
एक लाम्बो फासलौ।
म्हारी अण भूजी आडी!
ज्यूं-ज्यूं
म्हैं थनै सुळझाऊँ
तू है के
और उळझती जावै।
पैला म्हैं
कांच सामीं
जांवण सूं डरतौ
आज भी घबराऊँ
पण अबै
खुद नै देखूं
कांच में नीं
थारी आंख्यां में।
तू कांई है?
म्हैं तो क्या
तू खुद भी नीं जाणें।
म्हैं सोचूं के
तू खुद ने
बांध राख्यौ है
एक छोटी सी सीमा में।
म्हनै लागै
के थनै चाहिजै
खुलौपण अर सुतन्तरता
पण थारै काळजै
बा हिम्मत नीं है
जकी तोड़ सकै
थारै खुद रा
बांध्योड़ा बंधन।
तू आपोआप खींची है
आपरै ही च्यारूंमेर
लाम्बी लिछमण रेखा
अर इण रेखा में
रावण तो क्या
राम भी नीं आ सकै।
तूं म्हारै सूं उम्मीद मत राख।
जद तू आप ही
पग नीं उठावै
तो म्हैं किण तरै लांघू
थारी सीमावां।
म्हारी बात मान
एक मिनख साइनै
कांच सामीं जा
अर देख, निरख
के तू बो नी है जकौ तू
खुद ने जाणें, समझै।