पितरपख और पिता / सुभाष राय
पिता मेरे ! ओ मेरे पिता !
मैंने बहुत शैतानियाँ की बचपन में
लेकिन तुमने मेरी पिटाई करने की जगह
केवल कहानियाँ सुनाईं
बहुत सारे सवाल किए तुमसे
बिना झुँझलाए सबके जवाब दिए तुमने
कभी बोलकर, कभी बिना बोले
इस बार बोलकर बताना, ज़ोर से बोलकर
क्या तुम किसी पितरलोक में हो अभी
क्या तुम्हें अन्न-जल की अपेक्षा है मुझसे
मर गए हो या जीवित हो मेरे भीतर
मुक्ति की चिन्ता तो नहीं है तुम्हें
मेरी सुनो तो तुम मुक्त थे, मुक्त हो
तुम्हारी एक ईमानदार रचना
काफ़ी है तुम्हारी मुक्ति के लिए
सच कहूँ तो मैं हर पिता में
देखता हूँ तुम्हें बच्चे की तरह
हर बच्चे में भविष्य के पिता की तरह
जब भी खेतों में काम करते देखता हूँ किसी को
हरी फ़सलों में लहलहाते तुम्हें ही देखता हूं
जब भी सच बोलते देखता हूँ किसी को
बिना डरे, बिना झुके, बिना डिगे
तुम्हें ही देखता हूँ मज़बूत हाथ में बदलते हुए
मृत्यु के बाद तुम और भी उदार
और भी विशाल हो गए हो
जाकर भी नहीं जा सके हो मुझसे दूर
मेरे भीतर और बाहर मौजूद हो भरपूर ।